भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पद 251 से 260 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद संख्या 253 तथा 254

(253)

श्री राम ! राखिये सरन, राखि आये सब दिन।
बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयालु दूजो,
आरत-प्रनत -पाल को है प्रभु बिन।।

लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी -अघी,
नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन।
स्वामी समरथ ऐसो, हौं होति हिये घनी घिन।।

खीझि-रीझि , बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार।
‘तुलसी तू मेरो’ , बलि, कहियत किन?
जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,
महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन।।

(254)

श्री राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।
सुजन-सनेही, गुरू-साहिब, सखा-सुहृदय,
राम-नाम प्रेम -पन अबिचल बितु हैं। ।

सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि,
लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है।
नामको भरोसो-बल चारिहू फलको फल,
 सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है। ।

 स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सारिखेा न और हितु है,
तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है।।