पद 261 से 270 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 261 तथा 262
(261)
श्री मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं,
राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं ।
निपट सयाने हौ कृपानिधान! कहा कहौं?
लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं।।
मानस मलीन, करतब कलिमल पीन
जीह हू न जप्यो नाम, बक्यो आउ-बाउ मैं।
कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,
बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं।।
देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,
प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।
राग रोष द्वेष पोषे, गोगन समेत मन,
इनकी भगति कीन्हीं इनही को भाउ मैं।
आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें।
बूझियत गति, कछु कीन्हो तो न काउ मैं।
जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,
झूठे -साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं।।
(262)
कह्यो न परत , बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सों, बलि , दीनता।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता।1।
दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता।2।
एही दरबार है गरब तें सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी -मिसकीनता।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता।3।
यहाँकी सयानप, अयानप सहस सम,
सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता।
गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये,
हाइगी न साईं सेा सनेह -हित-हीनता।4।
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरू,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता।
करूनानिधान! बरदान तुलसी चहत,
सीतपति -भक्ति -सुरसरि -नीर-मीनता।5।