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पद 261 से 270 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद संख्या 263 तथा 264

(263)

श्री नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।
रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो,
रूचिर रहनि रूचि मति गति तीयकी।।

कुकृत -सुकृत बस सब ही सों संग पर्यो,
परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।।
मेरे भलेको गोसाईं! पेचको, न सोच -संक,
हौहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी।।
 
ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी,
यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी?
तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित,
राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी।।

(264)

मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो।
चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ
तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो।1।

नये -नये नेह अनुभये देह-गेह बसि,
 परखे प्रपंची प्रेम , परत उघरि सो।
 सुहृद -समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत,
 जबजाको काज तब मिलै पाँय परि सो।2।

बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके,
 देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो।
 करम धरम श्रम-फल रघुबर बिनु,
 राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो।3।

आदि-अंत-बीच भलो करै सबहीको
जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो।
सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान,
कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो।4।

जीवको जीवन-प्रान , प्रानको परम हित,
 प्रीतम, पुनीतकृत नीचन निदरि सो।
 तुलसी! तेको कृपालु जो कियो कोसलपालु,
 चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो।5।