पद 261 से 270 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3
पद संख्या 265 तथा 266
(265)
तन सुचि, मन रूचि, मुख कहौं ‘जन हौं सिय-पीको’।
केहि अभाग जान्यो नहीं , जो न होइ नाथ सों नातो -नेह न नीको।1।
जल चाहत पावक लहौं , बिष होत अमीको।
कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको।2।
जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको।
सुनि उपचार बिकार को सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको।3।
प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको।
निकट बोलि, बलि, बरजिये, परिहर ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको।4।
(266)
ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु ! त्यों त्यांे दूरि पर्यो हौं।
तुम चहुँ जुग रस एक नाम राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भर्यो हौ।1।
बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर्यो हौं।
हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुकतितें कुमति कर्यो हौं।2।
अगनित गिरि-कानन फिरयो , बिनु आगि जर्यो हौं।
चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब,अब अपडरनि डर्यो हैा।3।
माथ नाइ नाथ सों कहौं , हाथ जोरि खरयो हौं।
चीन्हो चोर जिय मारिहैं तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर्यो हौ।4।