पद 261 से 270 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
पद संख्या 267 तथा 268
(267)
पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार पर्यो हौं।
‘तू मेरो’ यह बिन कहे उठिहौं न जनमभरि, प्रभुकी सौंकरि निर्यो हौं।1।
दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टर्यो हौं।
उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकर्यों हौं।2।
हौं मचला लै छाड़िहौं , जेहि लागि अर्यो हौं ।
तुम दयालु, बनिहै दिये, बलि, बिलँब न कीजिये , जात गलानि गर्यो हौं।3।
प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भर्यो हौं।
तौ मनमें अपनाइये, तुलसिहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहर्यो हौं।4।
(268)
तुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै।
जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेेह छाड़ि छल करिहै।1।
सुतकी प्रीति, प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै।
अपनो सो स्वारथ स्वामिसों , चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै।2।
हरषिहै न अति आदरे , निदरे न जरि मरिहै।
हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित , कलि -कुचालि परिहरिहै।3।
प्रभु -गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै।
तुलसिदास भयो रामको बिस्वास, प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै।4।