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पनरमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

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पनरमोॅ अध्याय

(गीता में परनमोॅ अध्याय पुरूषोत्तम योग कहाबै छै। परम पुरूष परमात्मा ही ब्रह्माण्ड के मूल आधार, कर्त्ता-भर्त्ता छेकै। हुनकोॅ कीर्ति, भजन, कीर्त्तन आरो पूजा-पाठ करला से ही संसार-सागर सें बेड़ा पार होय के रस्ता बनै छै। है कर्म ज्ञानी आरो योगी से ही सम्भव छै। क्षर आरो अक्षर के विबेचन, अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के संकेत के साथ-साथ ब्रह्म प्राप्ति के सरल मार्ग भक्ति साधन सें ही यै अध्याय के विषय-वस्तु छेकै।)

अश्वत्थ बृक्ष के जड़ ऊपर
नींचे अब्यय गाछी के डार
भगवानें कहलकै ऋचा छन्द
छै वृक्ष पत्र, वेदोॅ के मंत्र॥1॥

गाछी के डालि तरें ऊपरें, गुण विषय सें सेवित हर पहरें
जड़ कखनूं नीचें फैलै छै, फल प्राप्ति लेॅ नर ठेलै छै॥2॥

गाछी के रूप अदृश्य रहै, स्थिति, अन्त, प्रारंभ परे
दृढ़ निश्चयिं हीं काटेॅ पारतै, जे शस्त्र असंगोॅ सें कटतै॥3॥

अश्वत्थ काटि ही परम धाम, फेनू नैं उल्टि केॅ घुरै काम
वै आदि पुरूष में जाय मिलै, पावन जग्घा में फूल खिलै॥4॥

अभिमान कुसंगत अहंकार, मोहोॅ से दूर जे जानकार
दुःख सुख के द्वन्द्वो सें विमुक्त, पर धाम धरै वें भक्तियुक्त॥5॥

हमरा धामें नैं रवि ज्योति, नैं चन्द्र आरो पावक ज्योति
जे एक्के बेरी आबै छै, लौटी नैं जग फेनू जाबै छै॥6॥

है जीव लोक के प्राणी सभ, हम्ह्रै अंशोॅ नित्योॅ के सभ
षट-इन्द्रिय मन के साथ-साथ जीयै लेॅ जूझै दिवस रात॥7॥

भौतिक जग में सब्भे प्राणी, जिनगी केॅ जियै अलगे तानी
वायूं जेनां लै गन्ध फूल, लै-छोड़ै में नैं करै भूल॥8॥

वैस्हैं एक दोसरा के देहें, प्राणी के पृथक नाकें-भौहें
दासरोॅ शरीर जबेॅ जाबै छै, अलगे इन्द्रिय सुख पाबै छै॥9॥

मूढ़ें है भेद नैं जानै छै, खाली ज्ञानी पहचानै छै
कि प्रकृति गुणोॅ के घपला की? देह त्याग जनम के लफडा की?॥10॥

वस आत्म योग के ज्ञाता हीं, है बात बुझै वै ज्ञेता हीं
जे ओत्तेॅ गहरा नैं हेललै, रत रहल्हौ पर भी नैं जानलै॥11॥

दुनियाँ केॅ प्रकाशित कौनें करै? हौ सुर्य चन्द्र पावक जे जरै
हौ हमर्है तेज पेॅ वारा छै, वें हमरे आबि सहारा लै॥12॥

हर लोक ओजवल साथ-साथ पहुंचौं ठहरौ हम्में अपने आप
बनि चन्द्र औषधि केॅ देखूं, या रस संचार के कर्म लखूं॥13॥

हम्में प्राणी में वैश्वानर, रहौं पाचन-क्रिया में सतत उदर
हम्में सांसोॅ में प्राण वायु, देहोॅ के हम्में अपान वायु॥14॥

सबके हिय में ही बास करौ, स्मृति-विस्मृति के ज्ञान भरौं
सब वेदोॅ में हमरे ही नाम, वेदान्त कृतो भी हमरे काम॥15॥

ब्रह्माण्ड में दू रङ प्राणी बसै, एक क्षर आरो दूजे अक्षर जे
है मृत्यु लोक छै क्षर के बास, पर अमरलोक अक्षर निवाश॥16॥

एकरोॅ सें परे छै परम पुरूष, जे निर्विकार परमात्म पुरूष
हौ ईश्वर जग उतरी आवै, पोषण-पालन में जुटि जाबै॥17॥

हम्में तेॅ परे छी क्षर अक्षर, हम्में अतीत सबसें ऊपर
दोनोॅ लोकोॅ के लोक पुरूष, पूरे ब्रह्माण्ड के प्रथम पुरूष॥18॥

हे भरत पुत्र! दुविधा के रहित, जें जानै हमरा परम हित
जें हमरा भजी, शरण धावै, वै सिद्ध योगीं हमरा पावै॥19॥

है गोपनीय शास्त्रोक्त मंत्र
जेकरा सुनल्हौं हे पाण्डु-पुत्र
जौनें नर भीं जानी लेतै
हौ पुर्ण ज्ञानीं ही कहलैतै॥20॥