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परपीड़क / शरद कोकास

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वे परपीड़क थे
परपीड़ा का सुख
उनके लिये हलुआ-पूड़ी था
हालाँकि दुनिया के सामने
उसे दो वक़्त की रोटी साबित करने का हुनर
वे जानते थे

दूसरों की ज़िन्दगी में सेंध लगाकर
वे चुराते थे उनकी निजी अनुभूतियाँ
जिन्हें अपने अहं के तवे पर सेंक कर
परपीड़ा की भूख से पीड़ित
हमनिवालों की थाली में परोसते थे

कसाई के छुरे की तरह होती थीं उनकी बातें
दूसरों की छटपटाहट उनका आनन्द थी
उन्हें मालूम थे
हत्या को आत्महत्या साबित करने के तरीके
वे इल्ज़ाम से बचने के तरीके भी जानते थे

उनकी आदतें हवस में बदल चुकी थीं
आत्मा की वे बोली लगा चुके थे
इमान के बदले ख़रीद चुके थे
सुविधा के शेयर
आश्चर्य वे उन्हीं का वास्ता देते थे

उनका वजूद
दूसरों का खू़न पीकर जीने वाली
जोंक से ज़्यादा नहीं था
फिर भी वे अपने दम पर जीने का
दम भरते थे

उनके अट्टहास खोखले थे
हँसी बमुश्किल गले से निकलती थी
अकेले में वे मुस्कुरा तक नहीं सकते थे
फिर भी बेशर्मी की खाल ओढ़कर
वे कछुए की तरह रेंगते थे
वक़्त आने पर
गर्दन छुपा लेने का गुण
उन्हें आता था

वे मनुष्य की सत्ता के
एक आश्चर्यजनक तथ्य से नावाक़िफ थे
कि उत्पीड़न सहने की हद खत्म होते ही
पीड़ा की उलटबाँसियों का अध्याय शुरू होता है।

-1997