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परम प्रेममयी श्रीराधा-गोपीजन सब काययूह / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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परम प्रेममयी श्रीराधा-गोपीजन सब काययूह।
कृष्णप्रेम-परिपूर्ण हृदय सब दिव्य पूर्ण रस-भाव-समूह॥
क्षमा-क्रएध, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मान-नीच अपमान।
जीवन-मृत्यु, विराग-राग, शुचि त्याग-भोग सब, जानाजान॥
शान्ति-‌अशान्ति, विवेक-भ्रान्ति सब, हास्य-रुदन, गायन-चीत्कार।
सभी श्याम प्रियतमको लेकर एकमात्र शुचि कर्म-विचार॥
कृष्णप्रेम-रस-भावित-मति सब कृष्णमिलन-हित आकुल-प्राण।
रहतीं सदा समुत्सुक करने रूप-सुधा-मधु-रसका पान॥
इह-परके विलास-सुख-भोगोंका करके आत्यन्तिक त्याग।
कृष्णप्रेममाा थीं वे सब मूर्तिमान प्रियतम-‌अनुराग॥
पाकर आज अगाध अखण्ड स्वयं रसराज रसार्णवरूप।
महाभावरूपा व्रज-सुन्दरि सुख-सुषमासे हुर्‌ईं अनूप॥
इसीलिये श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द पूर्ण परतम भगवान।
भगवाा सब भूल रसिकचूडामणि रस-शेखर रसवान॥
प्रेम-विवश स्वेच्छामय वे कर सहज प्रेम-बन्धन स्वीकार।
करने लगे गोप-सुन्दरियोंका रसमय आदर-सत्कार॥
त्यागपूर्ण रस मधुर देखकर ललचा उठे स्वयं भगवान।
करने लगे स्वयं रस-लोलुप बन वे रस-याचा मतिमान॥
नव-नीरद-नीलाभ श्याम-घन मानो दामिन-दलमें आज।
घन-दामिनि, दामिनि-घन अगणित बीच-बीचमें रहे विराज॥
दिव्य मिलनका उनको करके दुर्लभ दिव्यानन्द प्रदान।
करने लगे स्वयं उस दिव्य रसामृतका शुचि सादर पान॥