परिदृश्य / लक्ष्मीकान्त मुकुल
आवाज भरने तक
बच्चों के अधखिले होंठ
कंपकपा जाते थे, गायों की थनें
बादलों वाली रात में चौड़ी हो जाती
खेखरों की आवाजों से
गहन शून्य में पफटने लगते थे कान
आलू बोने दिन
ढलने ही वाले थे सर्दियों की शाम
अतिशीघ्र उतरने लगती, बेर की नन्हीं
पत्तियां डुलने लगतीं
बजने लगता अज्ञात कोने में झुरझुरा संगीत
हुक्के फूंकते ऊँघ रहे थे बूढे़
ओसारे की खाट पर पसरे हुए
मथ रहे थे बचपन की बुझी जोत से
गुनगुनी सुबह से उदास शाम तक की दंतकथाएंद्ध
दौड़ती बकरियों का अंकन था उनका स्मृति-रेख
बहकती दूर चली जाती दूर पेड़ों की ओट में
सींक-सा ओझल होता चांद तैरने लगता था
तितलियों के पंख बेताब होते थे
गांव था नहरों से घिरा हुआ
आतुर तैरने को पफुरगुदी चिरैया की शक्ल में
भावाकाश की नींद में खरांटे भरते हुए
घास काटती औरतें मुंह बाये
देख रही थीं हवा में उछलते
लाल-पीले पफतिंगों का मेला
दुध्मुहे नन्हें तेज कर रहे थे रोना-धेना
तेजी से भाग रहे दिनों की मानिन्द
देख रहे थे सिरपिफरे गवईं बदलते परिदृश्य
आकाशी सूंढ़ में लटके भाग रहे थे घर-द्वार
लोग-बाग गुम हो रहे थे अनजाने में दुबकते
मानों यूं ही चुपचाप!