भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पर्दा-ए-जे़हन से साया सा गुज़र जाता है / 'मुमताज़' मीरज़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पर्दा-ए-जे़हन से साया सा गुज़र जाता है
जैसे पल भर को मेरा दिल भी ठहर जाता है

तेरी यादों के दिए जब भी जलाता है ये दिल
हुस्न कुछ और शब-ए-ग़म का निखर जाता है


हसरतें दिल की मुजस्सम नहीं होने पातीं
ख़्वाब बनने नहीं पाता के बिखर जाता है

रात भीगे तो इक अनजान सा बे-नाम सा दर्द
चाँदनी बन के फ़ज़ाओं में बिखर जाता है

रात काटे नहीं कटती है किसी सूरत से
दिन तो दुनिया के बखेड़ों में गुजर जाता है

उस को भी कहते हैं ‘मुमताज’ वफ़ा का नग़मा
दिल-ए-बे-ताब में घुट घुट के जो मर जाता है