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पर्वत जैसे लगते हैं बेकार के दिन / डी. एम. मिश्र

पर्वत जैसे लगते हैं बेकार के दिन
हम भी काट रहे हैं कारागार के दिन

रोशनदानों पर मकड़ी के जाले हैं
उतर गये हैं भीतर तक अँधियार के दिन

मैंने पूछा कब तक देखूँ चाँद तुझे
वो बोला जब तक हैं ये दीदार के दिन

चारों तरफ़ दिखे केवल कोरोना ही
कितने दर्दीले हैं ये संहार के दिन

लाशों के अंबार लगे हैं दुनिया में
देख लिये दुनिया ने हाहाकार के दिन

कान फटे जाते है झूठे बोलों से
याद बहुत आते हैं वो ऐतबार के दिन

मन में यह विश्वास हमारे है लेकिन
जल्दी ही लौटेंगे फिर से प्यार के दिन