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पलकों के शामियाने में ख़्वाब पल रहे थे / डी. एम. मिश्र
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पलकों के शामियाने में ख़्वाब पल रहे थे
घनघोर था अँधेरा जुगुनू मचल रहे थे।
कोमल चरन बताकर सब झूठ बोलते थे
वो पाँव रख रहे थे तो दिल दहल रहे थे।
दरबार से सब उसके होकर निहाल लौटे
लेकिन जो थे अभागे वो हाथ मल रहे थे।
नाकामयाबियों का इल्जाम किसको देता
मेरे ही कारनामे जब मुझको छल रहे थे।
इक संत की तरह वो जीवन बिता रहा था
अफ़़सोस जलने वाले उससे भी जल रहे थे।
दीवार थी कुछ ऊँची, था लक्ष्य उससे ऊँचा
चींटों को मैंने देखा गिर-गिर सँभल रहे थे।