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पलों पे कुछ चराग़ फ़रोजाँ हुए तो हैं / 'मुमताज़' मीरज़ा
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पलों पे कुछ चराग़ फ़रोजाँ हुए तो हैं
इस ज़िंदगी के मरहले आसाँ हुए तो हैं
मेरी जबीं ने जिन को नवाज़ा था कल तलक
वो ज़र्रे आज मेहर-ए-दरख़्शाँ हुए तो हैं
नादिम भी होंगे अपनी जफ़ाओं पे एक दिन
वो कम-निगाहियों पे पशेमाँ हुए तो हैं
शम्मा-ए-वफ़ा जलाते हैं ज़ुल्मत-कदों में जो
वो लोग इस जहाँ में परेशाँ हुए तो हैं
किस मौज-ए-ख़ूँ से गुज़रे हैं ‘मुमताज’ क्या कहें
कहने का आज हम भी ग़ज़ल-ख़्वां हुए तो हैं