भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहली बार / विमलेश त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब पहली बार मैंने प्यार किया
तो सोचा-
इसे सच कर रख दूँगा
जैसे दादी अपने नैहर वाली बटलोही में
चोरिका संचती थी
उछाह में दुलारूँगा, जैसे अपने रूखर हाथों से
दुलारते थे बकुली बाबा, झंवराये हुए ध्नहा जजाति को
जीवन भर निरखूँगा निर्निमेष
आँखों में मोतिया के ध्ब्बे बनने के बाद भी
अमगछिया के रखवारे
टूंआ हरिजन की तरह
जब पहली बार मैंने प्यार किया
तो समझा-
सपना केवल शब्द नहीं, एक सुन्दर गुलाब होता है
जो एक दिन
आँखों के बियाबान में खिलता है
और हमारे जीने को
देता है एक नया अर्थ

अर्थ, कि आत्महत्या के विरू( एक नया दर्शनद्ध

जब पहली बार मैंने प्यार किया
तो महसूस हुआ
कि हर सुबह पूरबारी खिड़की से
सूरज की जगह, अब मैं उगने लगा हूँ
और कोईरी डोमिन की रहस्यमय मुस्की में
कहीं-न-कहीं मेरी सहमति शामिल है
हर सुबह बिनने लगी है
महुए के पूफलों की जगह वह
क्षण के छोटे-छोटेू महुअर
याकि मन के छोटे-छोटे अन्तरीप