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पहले-पहले डर लगता है / फूलचन्द गुप्ता
Kavita Kosh से
पहले-पहले डर लगता है
फिर पिंजरा ही घर लगता है
मुझको तो हैवान, यहाँ पर
काज़िम से बेहतर लगता है
कानी हौद बनी अब संसद
लोकतन्त्र बेघर लगता है
जिसके सीने पर सिर रक्खा
पड़ा वहीं पत्थर लगता है
मिली अजीब आँख है तुझको
हर हाक़िम सुन्दर लगता है !
बन्द कफ़न है, कटे पंख हैं
ज़िन्दा हूँ, मर मर लगता है
कहीं चीख़ है, कहीं ठहाके
यह कैसा मंज़र लगता है ?
नदी, नाव, पतवारों के अब
मिलने का अवसर लगता है ।