पागल भीड़ ने घेर लिया है मुझे / लक्ष्मीकान्त मुकुल
जैसे ही मैं कहना चाहा
कि नाबालिक बच्चों को नहीं चलानी चाहिए बाइक
शौक बस चला भी रहे हो तो सिर पर रख लेना हैमलेट
सुनते ही नौछिटीहों के भीड़ की आंखें घूरती है मुझे
उनकी नजरों से दहक रही हैं क्रूरता कि लपटें बौखलाए कुत्तों-सा घेर लेते हैं मुझे झुंड के झुंड अचानक
किशोरावस्था कि सीमा रेखा पर पांव रखने वाले इन छात्रों में कहीं नहीं दिखती बचपना वाली तरलतायें
उनके जीवन के कनात तने हैं मोबाइल, बाइक, अवैध धन के प्रवाह के सहारों पर
वे घूरते हैं मुझे लगातार गुस्से में
जैसे शिकारियों के झुंड घूरते हैं घबराए हिरण को
उन्हें नफरत है समाज के बनाए ढांचे से
नियम, कायदे, कर्तव्यों की खाल उधेड़ने की सनक बोरसी की आग-सी धुआं रही है उनके भीतर
उन्हें पसंद नहीं है सड़क पर दाई ओर चलना
वे रखना चाहते हैं पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद
कोई बहाना नहीं चाहते हैं मेहनत करते हुए पसीने की एक भी बूंद, वे कभी नहीं देना चाहते मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान
वही अपनी बातों से कच्चे चबा जाना चाहते हैं पाकिस्तान को
काश्मीर-राम मंदिर-तीन तलाक-सर्जिकल स्ट्राइक पर जबानी कैची कतरते इन नौजवानों को गांधी, भगत सिंह, अंबेडकर लगते हैं उनके सबसे बड़े दुश्मन, नेहरू के माथे पर फोड़ना चाहते हैं सभी कमियों का ठीकरा
विषहीन डोंडहा सांप को घेरकर बच्चे मारते हैं ढेला
खेलते हैं सांप मारने वाला खेल
जैसे नील गायों के झुंड रौंद डालते हैं हमारी खड़ी फसलों को
इन किशोर बाइक सवारों ने घेर लिया है मुझे
बरसाते हुए मुक्का-लात, ठीक शहर के चौराहे पर
राहगीर मेरी दशा को देखकर मुस्काते, तो प्रफुल्लित हैं पुलिस वाले
जैसे अपने शिकार को छटपटाते देख कर उमंगित होते हैं शैय्याद...!