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पीडाओं के दीप / लक्ष्मीकान्त मुकुल
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					दीपावली के बाद मुंह अँधेरे में 
हंसिया से सूप पिटते हुए लोग बोलते हैं बोल 
‘इसर पईसे दलिदर भागे , घर में लछिमी बास करे’
और फेंक देते हैं उसे जलते ढेर में
हर साल भगाया जाता है दरिद्र को 
चुपके से लौट आता है वह 
हमारे सपनों , हमारी उम्मीदों को कुचलता हुआ 
कद्दू के सूखे तुमड़ी में माँ 
घी के दिए जलाकर छोड़ती है नदी में 
जिसमें मैं बहा आता था कागज़ की नाव 
झिलमिल धार में बहती हुई जाती थी किसी 
दूसरे लोक में
कितनी दीपावलियाँ आई जीवन में 
जलते रहे दीप फिर भी अंतस में पीडाओं के
 
	
	

