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पीते ही आए नैन / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
पीते ही आए नैन, न हिम की प्यास गई!
रस परसे जो गल जाय, गले को क्या कहिए!
चन्दन देखे जल जाय, जले को क्या कहिए!
क्या कहिए उसको, आप छला जो अपने से!
अपनी आँखों ढल जाय, ढले को क्या कहिए!
कि गया अँग–अँग से चैन, गई न उसाँस गई!
उतरा था जो दृग-बंक, गगन-मन में तिरके,
लगके पूनम के अंक, लुटा नभ से गिरके!
उडु-दीप न ये, आँसू बनके फूटीं आँखें
पर वह मन का अकलंक न फिर आया फिरके!
नित नैन बिछाती रैन, लगाके आस नई!
सुमनों को दे हिम-हार, शिशिर ने सिर नापे!
आगे की सोच बहार, लुटे काँटे काँपे!
कि अतन बन, बन की हूक कहीं से कूक उठी
रस के बस के अभिसार, करीरों ने भाँपे!
श्रुति नैन बनी, सुन बैन; न पिक के पास गई!