पुराने पेड़ भी कितने घने हैं
थके-माँदों को साया दे रहे हैं
पले हैं जो हमारा ख़ून पीकर
उठा कर फन वही डसने लगे हैं
बड़े होकर हमारे सारे बच्चे
सरक कर दूर कितने हो गए हैं
सदा जो हाथ उठते थे दुआ को
न जाने वो लहू से क्यूँ सने हैं
जिन्हें सौंपी थी हमने रहनुमाई
उन्हीं की साज़िशों से घर जले हैं
‘अज़ीज़’ अब छोड़िये बेकार क़िस्से
कहेंगे लोग पागल हो गए हैं