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पुराविद् और खोई हुई नदी / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
पुरखों की आभा से मण्डित
अनूठा यह शहर
ढूँढ़ता है अपनी शापित नदी
जो धड़कती थी इस शहर में कभी
पुराविद् बेचैन हैं
वे घूमते हैं इस शहर के चारों ओर
जैसे जंगल में घूमते हैं शिकारी
वे ढूँढ़ते हैं टीले/खण्डहर/मकान
आभूषण/उपकरा/और पुरानी वस्तुएँ
वे पाना चाहते हैं
शहर की खोई हुई नदी के अवशेष
पुराविद ढूँढ़ते हैं बहुत कुछ
मगर वे नहीं ढूँढ़ते
अतीत की छुअन और सिहरन
वे पा जायेंगे नदी के पाट का शव
पर वे नहीं सुन पायेंगे
खोई हुई नदी की अनुगूँज
पुराविद् बहुत कुछ जानते हैं
पर वे नहीं पहचानते
खोई हुई नदी के शहर का दर्द।