पुष्प बोगनबेलिया महके तुम्हारी याद देकर / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
पुष्प बोगनबेलिया महके तुम्हारी याद देकर।
पुष्पिते! सावन सुहाना आज महकाओ सुनो ना!
बह रही पवमान; तन अनुभूति पाकर झूमता है।
चिद्विलासी मन मगर सुधियाँ निरंतर चूमता है।
कुंज की हर तरु लता तन ताप से झुलसा रही है।
और कलियाँ नित चिढ़ा संभाव्यत: हुलसा रही हैं।
प्राणिके! आओ; कहाँ हो? यों न बहकाओ सुनो ना!
पुष्पिते! सावन सुहाना आज महकाओ सुनो ना!
सावनी जल, घन; घनन करके सदा बरसा रहे हैं।
अवनि अम्बर हो अभय अनुराग में हरषा रहे हैं।
कोयलें कूकें विटप पर और चातक भी अघाये।
इस विरह की आग में केवल रहे हम तुम सताये।
आत्मिके! प्राकार तजकर प्रेम बरसाओ सुनो ना!
पुष्पिते! सावन सुहाना आज महकाओ सुनो ना!
घिर रहे बादल, करे पागल, शुचे! तुम क्यों न आये?
दामिनी कड़की, नयन फड़की, शुचे! तुम क्यों न आये?
त्याग कर सब रूढियाँ आओ चलो बिषपान कर लें।
प्रेम की मीरा सदाशिव बन प्रणय अवसान हर लें।
राधिके! माया रहित शुचि रास सरसाओ सुनो ना!
पुष्पिते! सावन सुहाना आज महकाओ सुनो ना!
पुष्प बोगनबेलिया महके तुम्हारी याद देकर।
पुष्पिते! सावन सुहाना आज महकाओ सुनो ना!