भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पेट पर पट्टी बंधी है‚ बेबसी है / अजय अज्ञात
Kavita Kosh से
पेट पर पट्टी बंधी है‚ बेबसी है
मुफ़्लिसों की ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
साथ ग़ुर्बत का नहीं देती है क़िस्मत
गाज हरदम वक़्त की इस पर गिरी है
हाथ वो जिसने घड़ा था ताज देखो
दस्तकारी की सजा़ उसको मिली है
जिन के चूल्हे जल न पाए ज़िंदगी भर
आग सीने में सदा उनके जली है
रोज़ सूरज उग रहा सदियों से फिर भी
घर में अब भी मुफ़्लिसी की तीरगी है
देखिये साज़िश रची क़ुदरत ने कैसी
झोंपड़ी पर ही सदा बिजली गिरी है
दौर पतझड़ का नहीं गुज़रा अभी तक
शाख़ पत्तों के बिना सूनी पड़ी है
जम्अपूंजी नेकनामी की मिली जो
काम मेरे आज तक वो आ रही है
कह रहा ‘अज्ञात' सब से मुस्करा कर
ज़िंदगी की राह तो काँटों भरी है