प्यार का वक़्त / वेणु गोपाल
वह
या तो बीच का वक़्त होता है
या पहले का। जब भी
लड़ाई के दौरान
साँस लेने का मौक़ा मिल जाए।
उस वक़्त
जब
मैं
तुम्हारी बंद पलकें बेतहाशा चूम रहा था और
हमारी
दिन भर की लड़ाई की थकान
ख़ुशी की सिहरनों में तब्दील हो रही थी। और
हमारे हाथ
एक-दूसरे के अंगों पर फिरने के बहाने
एक-दूसरे की पोशीदा चोटों को सहला रहे थे।
उस वक़्त
कहीं कोई नहीं था। न बाहर, न भीतर। न
दिल में, न दिमाग़ में। न दोस्त, न दुश्मन। सिर्फ़
हमारे जिस्म। ठोस, समूचे और ज़िन्दा जिस्म।
साँपों के जोड़े की तरह
लहरा-लहरा कर लिपटते हुए। अंधेरे से
फूटती हुई
एक रोशनी
जो हर लहराने को
आशीर्वाद दे रही थी
उस वक़्त
हम कहाँ थे? कोई नहीं जानता। हम
ख़ुद भी तो नहीं। मुझे लगता है
उस वक़्त
जब
एकदम खो जाने के बावजूद
कहीं गहरे में
यह अहसास बराबर बना रहता है
कि रात बहुत गुज़र चुकी है
कि सबेरा होते ही
हमें
दीवार के दूसरी ओर
जारी लड़ाई में
शामिल होना है। और
जब भी
कभी
यह अहसास
घना और तेज़ हो जाता है
तो
हम
एक बार फिर लहरा कर लिपट जाते हैं
क्योंकि
वह
लड़ाई की तैयारी का ज़रूरी हिस्सा है। क्योंकि
प्यार के बाद
हमारे जिस्म
और ज़्यादा ताकतवर हो जाते हैं।
रचनाकाल : 15 जनवरी 1974