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प्यार का सपना / जगदीश गुप्त

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बड़े अन्धेरे गंगा के उस पार घूमकर आया
खोया-खोया चूर-चूर-सा माथे पर दुख छाया

गेहूँ के उस हरे खेत से कच्ची बाली एक
बड़े प्यार से तोड़ी
मोड़ी —
चुम्बन लिए अनेक

हरे दूधिया दाने कुछ दाँतों के बीच दबाकर
कुतर लिए —
कुछ मसल उँगलियों से डाले अलसाकर

घर आते ही तकिए पर सर रखकर लगा भुलाने —
वह जो कुछ मन पर घिर आया था जाने-अनजाने

थकी देह थी — पलक मुन्द गए अलसाहट बढ़ आई
लगी रिझाने किसी सलोने सपने की परछाँईं

जलते माथे को नन्हीं-सी ठण्डी लहर हवा की
सहसा आई और छु गई ज्यों छाया ममता की

लगा मुझे ढक लिया किसी ने जैसे निज आँचल से
फिर वह नन्हीं लहर खो गई घने स्नेह के छल से

जाने क्यों रह-रहकर अन्तर लगा भीगने मेरा
वह नन्हीं-सी लहर हवा की पुनः कर गई फेरा

फिर आई फिर गई लहर शीतल ज्यों हिम की रेखा
रहा उमड़ता प्यार न मैंने पलक खोलकर देखा

इतने में कुछ चुभा देह में बहुत नुकीला तीखा
सुनी फड़फड़ाहट कानों ने, पँजों-सा कुछ दीखा

मैं था अधउघरी पलकें थीं मलगीजी-सी शैया
फुदक रही थी रह-रह उस पर नन्हीं-सी गौरैया

लगा रह गया होगा मेरे मुँह में कोई दाना
इसीलिए माथे तक उसका था वह आना-जाना

स्नेह प्यार आँचल की छाया वह सब का सब भ्रम था
केवल गौरैया के दाने के पाने का क्रम था

नन्हीं ठण्डी लहर नहीं थी डैनों का फुरफुर था
दाना था या नई पौध के उगने का अँकुर था

ममता थी या पँछी दाना खोज रहा था अपना
पलक मुन्दे थे किन्तु चुका था टूट प्यार का सपना।