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प्यार हो बादल / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
किसी की आँख का पानी
किसी के
प्यार हो बादल
कभी निर्झर, कभी नदिया
कभी सागर बने उफने
कभी तुम रेत पर बुनते रहे
बिखरे हुए सपने
किसी चट्टान को तोड़ा
लहर उछली, भँवर मचले
न बँध पाए किसी अनुबन्ध से
तटबन्ध से फिसले
बड़े नटखट
बड़े मनहर
बड़े दिलदार हो बादल
भरे रँग अन्तरिक्षों में
चलन बदले हवाओं के
तुम्हरे साथ चलते हैं
मदिर गजरथ फिज़ाओं के
रँगे पर्वत
खिली घाटी
महक उड़ती कछारों से
न जाने कौन सा उन्माद
झरते हो फुहारों से
खनकती ज़िन्दगी को
तुम नयी
रसधार हो बादल
मगर इस बार क्या आए
अँधेरा ही अँधेरा है
नहीं लगता दुपहरी है
कि संध्या है सबेरा है
मची है कीच आँगन में
गटर है राज पंथो पर
कहीं पर फिसल जाने का
कहीं पर डूबने का डर
हमें तो आज तुम ही
लग रहे पतवार हो बादल