प्यास प्यासी ही हमारी रह गई / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
तप रहे मरुथल सरीखी जिन्दगी,
प्यास प्यासी ही हमारी रह गई।
गीत गज़लों में तुम्हें कैसे कहें?
तूलिका गढ़ती व्यथा का व्याकरण।
दुपहरी के मौन स्वर बोझिल हुए,
नित्य होता जब सुखों का अपहरण।
शून्य संवेदन सरीखी जिन्दगी,
आस आसी ही हमारी रह गई।
प्यास प्यासी ही हमारी रह गई।
कौन छवियाँ नित सजाता व्योम में?
जबकि जीवन पृष्ठ खारे हो गये।
यक्ष प्रश्नों को जुबानी पूछता,
रक्त रिश्ते क्लिष्ट सारे हो गये।
बुझ रही बाती दिये की संदली,
बास बासी ही हमारी रह गई।
प्यास प्यासी ही हमारी रह गई।
बोध कैसे कह बताऊँ शून्य का?
भीड़ में रहना हमारा ठाँव है।
देह सारंगी हमारी ढूँढती,
मदलता जिसपे हमारा दाँव है।
जीवनी भी होम की समिधा बनी,
श्वाँस उपवासी हमारी रह गई।
प्यास प्यासी ही हमारी रह गई।
तप रहे मरुथल सरीखी जिन्दगी,
प्यास प्यासी ही हमारी रह गई।