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प्रगटे अभिराम स्याम रसिक / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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प्रगटे अभिराम स्याम रसिक ब्रज-बिहारी।
 बृंदावन नंद-भवन जन-मन-सुखकारी।

 हरन विषम भूमि-भार, करन दुष्ट-दल-‌उधार।
 सरन संत-जन उबार, अखिल अघ-बिदारी॥-प्रगटे०॥

 मुदित भ‌ए प्रेमी जन, संत भ‌ए निर्भय मन।
 डरे सकल खल-दुर्जन, अघी-‌अनाचारी॥-प्रगटे०॥

 आनँद अपार छयौ, दुःख-सोक-कुडर गयौ।
 गोकुल अब अतुल भयौ, उदये अवतारी॥-प्रगटे०॥

 बरस्यौ रस-मेह अमित, रस-सरिता बही अजित।
 चली सकल पवन-हित, अग-जग-हितकारी॥-प्रगटे०॥

 सब कें अति हिय हुलास, नंद-सु‌अन-दरस-‌आस।
 दौरे तजि-तजि निवास, आतुरता भारी॥-प्रगटे०॥

 पहुँचे नँद-महल हाल, दरसन करि अति निहाल-
 भ‌ए सकल ग्वालि-ग्वाल, पुलक अंगझारी॥-प्रगटे०॥

 पायौ सब सुख अपार, उतर्‌यौ सब मोह-भार।
 तन-मन सब दि‌ए वार, गोकुल-नर-नारी॥-प्रगटे०॥