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प्रतिफल / मुकेश निर्विकार
Kavita Kosh से
तरसती रही,
हमारी जीभ
उम्रभर
मीठे एक कौर के लिए
मगर
तृप्त नहीं कर सके उसे
हमारे ये दोनों
मेहनतकश हाथ
रात-दिन कसला
चला-चलाकर भी !
भले ही पाट दिये हमने
धरती की छाती पर खुदे
पतली गड्ढे,
पर पाट नहीं सके कभी
पेट की
बालिश्त भर जगह!
कुदरत के पास भी
(अब तो जान गए हैं
हम भी
कि)
बस यही है प्रतिफल
हमारे हाड़-तोड़ करम का-
भूख से इठलाती आंते..
अधनंगी, देह...
टपकता छप्पर..
और सामने..
धूल में खेलता हमारा भविष्य...