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प्राक्तन-भाषा और स्त्रियाँ / दिनेश कुमार शुक्ल

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नया-नया ही तब जीवन का अंकुर फूटा था दुनिया में
जलचर-थलचर-नभचर-अण्डज-उद्भिज सबकी
एक मातृभाषा थी सारे जड़-जंगम की
तब सब आपस में करते थे बात उसी साझी भाषा में
भाषा समरस भरी हुई थी सकल सृष्टि के पोर पोर में

सबकी सबसे बोल-चाल थी
अपने दुख-सुख बाँट लिया करते थे सब वह ऐसे दिन थे
चिड़ियाँ गाती गीत जिन्हें सुन पेड़ झूमते उनकी लय में
तब बरगद में और हवा में छेड़-छाड़ चलती रहती थी
हहर-हहर पीपल हँसता था, छुई-मुई शरमा जाती थी

नदिया के उस पार घास में छुपे बाध को
बछड़े खूब चिढ़ाते थे मामा कह-कह कर
मूछों में चुपचाप बाघ मुस्काया करता

बूढ़े बैल किसानों को गुर सिखलाते थे-
कैसे कंधा रोप उठाया जाता है बोझा पहाड़-सा,
तोता, मैना और आदमी मिल-जुल कर किस्से गढ़ते थे

खुल कर या कि इशारों में स्त्रियाँ
भाव मन के भौंरों से कह देती थीं
और कबूतर, कौवे, भौंरे उड़ते-उड़ते
दूर देस तक चिठ्ठी-पाती या संदेसड़ा पहुँचाते थे

सकल चराचर में संचारी भावों की धारा बहती थी
सबकी थी पैसार सभी के अन्तर्मन तक
इसीलिए सारे जड़-जंगम अपना हृदय स्वच्छ रखते थे
कहीं न कोई भी दुराव था सहज-भाव था-
प्रेम लाँघ जाता था तब सीमा प्रजाति की

किसी साँवले-से किशोर की विरह-व्यथा में
विषम अनल की पुंज लतायें बन जाती थीं
और वनस्पतियाँ मोहित हो जाती थीं बंसी की धुन पर
वृन्दा तुलसी का परिणय तब होता था वंशी-वादक से
नदियों की भी आँख उलझ जाया करती थी किसी पुरुष से
पृथ्वी जन्म दिया करती थी कन्याओं को

सामूहिक-विस्मृति में डूबी कहीं पड़ी है वह दुर्घटना
जिसके चलते लुप्त हो गई साझी-भाषा
जिसके चलते हर प्रजाति की बोली-बानी अलग हो गई
कुछ तो बिल्कुल मौन हो गये उस सदमें में
छल घुस गया आदमी की अपनी भाषा में

धीरे-धीरे वह दिन आया
जब मनुष्य का ही मनुष्य से टूट गया संवाद
नहीं समझ पाता है वह अब तो खुद अपनी बोली-बानी
अब सब कुछ आत्मस्थ, मौन के सन्नाटे में डूबी दुनिया

किन्तु स्त्रियों की स्मृति में अब भी जब-तब
उस भूली-बिसरी भाषा की अनुगूंजें बजने लगती हैं
आज स्त्रियाँ सीख रही हैं फिर वह भाषा धीरे-धीरे

अब नदियों से होती उनकी बात
इसीलिये सबके प्रवाह की मुक्ति के लिये वे लड़ती हैं,
सचमुच अभयारण्य बोलता है उनकी वाणी में घुस कर-
छाती से चिपका वृक्षों को वे कुल्हाड़ियाँ तोड़ रही हैं

कभी-कभी स्त्रियाँ चराचर के उन बिसरे सम्बन्धों की
याद जगाया करती हैं कुछ त्योहारों में
आती करवा चौथ, रचा अभिसार चन्द्रमा से मिलने जातीं वे सजकर
होते ही चन्द्रोदय उनका कण्ठ फूटता
अनायास ही उस विस्मृत भाषा की लय में
अर्घ्यधार पानी की उस क्षण उनके संग-संग गाती है,
और कभी भरती है फेरे सात घने बरगद के नीचे
उस दिन बरगद वर होता है
घनी और शीतल छाया में बैठ स्त्रियाँ वहीं हवा के साथ
उसी प्राक्तन भाषा में शायद मक्तिगान गाती हैं-
अखिल जगत की अन्तर्निहित एकता का
उस क्षण विराट दर्शन होता है