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प्राण यहाँ भी / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

प्राण यहाँ भी अकुलाता है!

सरिता के उस पार किनारे,
एक दीप बैठा मन-मारे,
गेंदे-वाली माल गले की
टूट गिरी ले नैन निंदारे,

लहरों में लार डोल रही है
जल न बहा ले जा पता है!
प्राण यहाँ भी अकुलाता है!

वह दुकूल गिला-चमकीला,
बेला के अनुरूप छबीला,
कसमस करता मझधार में
बहुत देर से चाँद हठीला,

चल पाता आगे न डूबता
एक जगह ही उतराता है!
प्राण यहाँ भी अकुलाता है!

स्वर ऐसा न कभी सोता था,
सुध-बुध तो न कभी खोता था,
तन को धीरे से छूते ही
पलकें खोल सजग होता था,

जब-जब आज इसे झकझोरू,
कुनुन-मुनुन कर रह जाता है!
प्राण यहाँ भी अकुलाता है!