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प्रानधन सुंदर स्याम सुजान / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रानधन सुंदर स्याम सुजान !
छटपटात तुम बिना दिवस-निसि मेरे दुखिया प्रान॥
बिदरत हियौ दरस बिनु छन-छन, दुस्सह दुखमय जीवन।
अमिलन के अति घोर दाह तैं दहत देह-इंद्रिय-मन॥
कलपत-विलपत ही दिन बीतत, निसा नींद नहिं आवै।
सुपन-दरसहू भयो असंभव, कैसैं मन सचु पावै॥
अब जनि बेर करौ मन-मोहन ! दया नैक हिय धारौ।
सरस सुधामय दरसन दै निज, उर की अगिनि निवारौ॥