भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रानप्रिय मथुरा जाय बसे / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
प्रानप्रिय मथुरा जाय बसे।
भयौ मनोरथ सफल पुरानौ हिरदै के संताप खसे॥
जद्यपि ज्वाला जरी हिये बिच स्याम-बिरह की भारी।
दियौ परम सुख तदपि स्याम-सुख-काम-जरनि कौं जारी॥
पाइ सुयोग्य संगिनी सुख सौं करत होइँगे लीला।
बिसरि गये होंगे हरि मो कौं जो गुन-रहित असीला॥
नारायन की परम कृपा तें मन की आसा पूरी।
राधा सुखी भई अब सब बिधि करि पिय-सुख-सुध रूरी॥
काल अनंत जरौं बिरहानल, कह्यो सखिन सौं राधा।
प्रियतम सुखी रहैं, नित नव सुख-लाभ करैं बिनु बाधा॥