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प्रायश्चित / जयप्रकाश मानस

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मन को कोना-कोना

साफ़-सुथरा दीख रहा है

जैसे लिपा-पुता घर-आँगन

हलाक हुआ उतना अधिक

भर उठा है जितना

चमक रहा है एक बूँद सूरज कपोल पर

आँखों के रास्ते अड़ते-अड़ाते

उमड़ पड़ा है अथाह विश्वास

ख़ुद पर पहली बार