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प्रार्थनाएँ / शरद कोकास
Kavita Kosh से
जो प्रार्थनाएँ मन के तल से आती हैं
नम होती हैं आँसुओं से
ध्वनि, आकार, रंग-रूप, भाषा की
कोई शर्त नहीं होती
पदार्थ नहीं होती प्रार्थनाएँ
कि बल लगाना पड़े उन पर
मज़बूत इतनी कि कोई तथाकथित बहुआ
सेंध न लगा सके
कमज़ोर इतनी कि ज़रा सा दुख
चुरा ले उनकी तीव्रता
जोर-ज़बरदस्ती से मन लगाने की कोशिश
जैसे खेलते हुए बच्चे को
कान पकड़कर घर लाया जाए
प्रार्थनाओं के स्वर
परेशानियों के पहाड़ से टकराएँ
वापस लौट आएँ
जिस तक प्रार्थनाएँ पहुँचाने की कोशिश है
मनुष्य ने ही गढ़ा है उसे और
उसका दावा है कि वह
उसके भीतर ही मौजू़द है
इस तरह प्रार्थनाओं के नाम पर मनुष्य
अपनी प्रार्थनाएँ
अपने तक ही पहुँचाता है
प्रार्थना में असर पैदा करने के लिए
ईश्वर का नाम लगाता है।
-2000