भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रार्थना - 7 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
मोहन कामहुँ के मन को, जग की जुवतीन को जो चित चोर है।
सेवक जाके सुरेसहुँ से, सोइ चाहत तेरी दया दृग कोर है॥
भाग भली तू लही ये अली, घन प्रेम कियो बस नन्दकिशोर है।
है घनस्याम बनो तुव चातक, जो वृजचन्द सो तेरो चकोर है॥