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प्रिय-बियोगमें अबिरत स्मृति / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रिय-बियोगमें अबिरत स्मृति सौं भयौ नित्य मानस-संयोग।
भई बियोगिनि, नित्य स्याम-संजोगिनि, भूली दुःख-बियोग॥
रह्यौ न मन कछु देस-काल-कुल-लोक-बेद के भय कौ भाव।
नित निरवधि निर्बाध मिलन मनभर प्रिय कौ, चित नित नव चाव॥
उदै भई रति पूर्ण तीब्रतम, छाई सब दिसि, ओर-न-छोर।
बितरत नित्य नवीन अमित रस-सुख पिय, नित्य-रमन मन-चोर॥
भंगुर-भयद मिलन सुख सीमित, सुख-बियोग अतिसै अबिराम।
या तैं रहीं गोपिका ब्रज में, तजि भजनीय द्वारका-धाम॥