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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ - २

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कर रहे जितने कल गान थे।
तुरत वे अति कुंठित हो उठे।
अब अलाप अलौकिक कंठ के।
ध्वनित थे करते न दिगंत को॥२१॥
उतर तार गए बहु बीन के।
मधुरता न रही मुरजादि में।
विवशता – वश वादक – वृंद के।
गिर गए कर के करताल भी॥२२॥
सकल – ग्रामवधू कल कंठता।
परम – दारुण – कातरता बनी।
हृदय की उनकी प्रिय - लालसा।
विविध – तर्क वितर्क – मयी हुई॥२३॥
दुख भरी उर – कुत्सित – भावना।
मथन मानस को करने लगी।
करुण प्लावित लोचन कोण में।
झलकने जल के कण भी लगे॥२४॥
नव – उमंग – मयी पुर – बालिका।
मलिन और सशंकित हो गई।
अति-प्रफुल्लित बालक-वृंद का।
वदन-मंडल भी कुम्हला गया॥२५॥
ब्रज धराधिप तात प्रभात ही।
कल हमें तज के मथुरा चले।
असहनीय जहाँ सुनिए वहीं।
बस यही चरचा इस काल थी॥२६॥
सब परस्पर थे कहते यही।
कमल – नेत्र निमंत्रित क्यों हुए।
कुछ स्वबंधु समेत ब्रजेश का।
गमन ही, सब भाँति यथेष्ट था॥२७॥
पर निमंत्रित जो प्रिय हैं हुए।
कपट भी इसमें कुछ है सही।
दुरभिसंधि नृशंस – नृपाल की।
अब न है ब्रज-मंडल में छिपी॥२८॥
विवश है करती विधि वामता।
कुछ बुरे दिन हैं ब्रज - भूमि के।
हम सभी अतिही - हतभाग्य हैं।
उपजती नित जो नव - व्याधि है॥२९॥
किस परिश्रम और प्रयत्न से।
कर सुरोत्तम की परिसेवना।
इस जराजित – जीवन – काल में।
महर को सुत का मुख है दिखा॥३०॥
सुअन भी सुर विप्र प्रसाद से।
अति अपूर्व अलौकिक है मिला।
निज गुणावलि से इस काल जो।
ब्रज – धरा – जन जीवन प्राण है॥३१॥
पर बड़े दुख की यह बात है।
विपद जो अब भी टलती नहीं।
अहह है कहते बनती नहीं।
परम – दग्धकरी उर की व्यथा॥३२॥
जनम की तिथि से बलवीर की।
बहु – उपद्रव हैं ब्रज में हुए।
विकटता जिन की अब भी नहीं।
हृदय से अपसारित हो सकी॥३३॥
परम - पातक की प्रतिमूर्ति सी।
अति अपावनतामय – पूतना।
पय-अपेय पिला कर श्याम को।
कर चुकी ब्रज – भूमि विनाश थी॥३४॥
पर किसी चिर-संचित-पुण्य से।
गरल अमृत अर्भक को हुआ।
विष-मयी वह होकर आप ही।
कवल काल - भुजंगम का हुई॥३५॥
फिर अचानक धूलिमयी महा।
दिवस एक प्रचंड हवा चली।
श्रवण से जिसकी गुरु - गर्जना।
कँप उठा सहसा उर दिग्वधू॥३६॥
उपल वृष्टि हुई तम छा गया।
पट गई महि कंकर - पात से।
गड़गड़ाहट वारिद – व्यूह की।
ककुभ में परिपूरित हो गई॥३७॥
उखड़ पेड़ गए जड़ से कई।
गिर पड़ीं अवनी पर डालियाँ।
शिखर भग्न हुए उजड़ीं छतें।
हिल गए सब पुष्ट निकेत भी॥३८॥
बहु रजोमय आनन हो गया।
भर गए युग - लोचन धूलि से।
पवन – वाहित – पांशु - प्रहार से।
गत बुरी ब्रज – मानव की हुई॥३९॥
घिर गया इतना तम - तोम था।
दिवस था जिससे निशि हो गया।
पवन – गर्जन औ घन - नाद से।
कँप उठी ब्रज – सर्व वसुंधरा॥४०॥