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प्रेम की मूरति नागर नट की / हनुमानप्रसाद पोद्दार

 प्रेम की मूरति नागर नट की।
 पुन्य थली बरसानें प्रगटी, माया की छाया सब सटकी॥
 राधा-प्रेम-सुधा-रस-सरिता अटकत नायँ काहु की हटकी।
 चली अबाध अमी-रस-धारा हरि की ओर, कितहुँ नहिं भटकी॥
 रागी हरि-पद, बिषय-बिरागी जन, जे अवगाही रस गटकी।
 ते सजि गोप-गोपि का आ‌ए, लै-लै सिर दधि-माखन-मटकी॥
 निरखन लगे, करन न्योछावर, रासि-रासि आभूषन-पटकी।
 सोहत बंदनवार-पाँति सुभ, कदली खंभ, सुमंगल घटकी॥
 ‘अचल सुहाग’ असीसत बृद्धा, जुबती हँसत-हँसावत मटकी।
 नाचत-गावत सुधि बिसारि सब, सहजहिं लाज-सरम सब झटकी॥