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प्रेम के दिनों में / शरद कोकास

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अपने होने का अर्थ लिए जिस तरह
मनुष्य के जीवन में आते हैं कुछ खास दिन
जीवन में प्रेम के दिन कुछ इस तरह आते हैं
कोई भयानक स्वप्न इन दिनों
नींद में प्रवेश नहीं करता
भय पलायन कर जाता है अपने मुखौटों के साथ
सुख के चरम में प्रकट होती है जिजीविषा
चिंतन की परिधि से बाहर होता है मृत्यु का विचार

यह अचानक नहीं होता इन दिनों
कि रंगों में बहते सुस्त खू़न में
बढ़ जाती है श्वेत रक्त कणों की संख्या
एक थिरकन सी उठती है देह में हर समय
मौसम के कोमल हाथ गाल सहलाने लगते हैं
शोर के मध्य भी खिलखिलाहट गूंजती है
हँसी हवा सी हर तरफ फैलती है
उम्र कहीं ठहरती नहीं कि उस पर
कोई निश्चित संख्या लिखी जा सके
इधर प्रेम पर हुए तमाम वैज्ञानिक शोधांे से अलग
प्रेम अपनी अलग थ्योरी गढ़ रहा होता है

ख़्वाहिशों के पर निकल आते हैं प्रेम के दिनों में
बच्चों सी मासूम हरकतों में बचपन लौट आता है
मन करता है किसी बच्चे को चूम लें उसे दुलराएँ
मन करता है किसी अनपढ़ को कुछ अक्षर पढ़ाएँ
पड़ोस की भाभियों से बेवज़ह गप्प लड़ाएँ
उनके साथ बैठकर बड़ी डाल दें
बेल दें पापड़ अचार बनाएँ
लड़कियों के साथ गिट्टक खेलें
लड़कों के साथ पतंग उड़ाएँ
हर वक्त लगता है किसी के कुछ काम आएँ
क्यों न किसी बीमार के लिये अस्पताल से दवा ले आएँ

क्रिया प्रतिक्रिया की राजनीति से परे है प्रेम
अपने देहातीत होने की प्रक्रिया में
तने हुए मेरुदंड की मज़बूती है प्रेम
प्रेम के आगे कमज़ोर है हर किस्म की घृणा
इंद्रियों की बदली हुई संरचना में घटित होता है प्रेम
जहाँ अनुभूतियों के नये अर्थ उद्घाटित होते हैं
जहाँ कीचड़ में खेलते सुअर के बच्चे भी
खू़बसूरत और प्यारे लगने लगते हैं
मीठी लगने लगती है करेले की कड़वी सब्ज़ी
उसी तरह बुरी नहीं लगती किसी को कड़वी बातें
बस्ती के नाले से आती हवा के झोंके में भी
ख़ुशबू की एक पीली लहर दिखाई देती है
हर वक़्त कानों में फुसफुसाहट सुनाई देती है

प्रेम की लिखित-अलिखित तमाम परिभाषाएँ
अपनी किताबी परिभाषाओं से बाहर घटित होती हैं
इसलिए प्रेमियों को अज्ञेय अच्छे लगते हैं इन दिनों
और मार्क्स को दिमाग में जगह मिलती है
अपने दर्शन में तमाम तरह के विरोधाभास लिए
प्रेम हर वक़्त बुराईयों से लड़ता है
शोषण का अर्थ समझता है प्रेम
बदहाली के कारण गिनवाता है प्रेम
प्रेम मनुष्य के भीतर नायकत्व को जन्म देता है

लौकिक पारलौकिक इच्छाओं के इस तथाकथित संसार में
एक जन्म में दूसरे जन्म का सुख है प्रेम
एक देह के भीतर जहाँ चुपचाप
एक देह जन्म लेती है निराकार
अपनी पारदर्शिता में समस्त मानवीय गुण लिए
अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है

देह धर्म का पालन करने की अक़्ल देता है प्रेम
पत्थर होते जा रहे मनुष्य के मन में
बगैर किसी प्राप्ति की आकांक्षा के
जज़्बा पैदा करता है
सारी दुनिया से प्रेम करने का।

-2002