भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम समुद्र रुप रस गहिरे / हरिदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रेमसमुद्र रुपरस गहिरे, कैसे लागै घाट।
बेकार्‌यो दै जानि कहावत जानि पनोकी कहा परी बाट॥

काहूको सर परै न सूधो, मारत गाल गली गली हाट।
कहि हरिदास बिरारिहि जानौ, तकौ न औघट घाट॥