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फकीर बन कर लकीर / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

मैं हूँ मनु-पुत्र
विद्रोही हूँ।

जकड़ कर रक्खा है
जिन बूढ़ी जर्जर जंजीरों ने
मेरे हाथ-पैरों को;
बाँधों ने मेरे उर-अंतर की
धारों को, लहरों को;
यों तो वे जंग-लगी जंजीरें
अनगिन दरारों-युक्त बाँधों की दीवारे
समय के हथौड़ों से, थपेड़ों से
स्वयं टूट जायँगी;

लेकिन
मैं भी तो मनु-पुत्र
तर्कशील, चेतन, विवेकशील
मनुजेतर सृष्टि की
विकास-प्रक्रिया से भिन्न
चलती रहती है जो स्वयं ही
अपनी सामर्थ्यों की सीमा में।
समय के साथ सहभागिता
मुझको भी करनी है,
मेरा भी भारी दायित्व है।
बन कर लकीर का फकीर
नहीं चलना है;
बन कर फकीर
खीचूँ नूतन लकीर
मैं इसका ही टोही हूँ।

मैं हूँ मनु-पुत्र
विद्रोही हूँ।

7.3.85