फ़रेब, झूठ का मंज़र कभी नहीं देखा
कहाँ नहीं है , पर ईश्वर कभी नहीं देखा।
उसे हमारी तरह ठोकरें कहाँ लगतीं
किसी दरख़्त ने चलकर कभी नहीं देखा ।
वो है सूरज उसे तपने का तजुर्बा केवल
ज़मीं की आग में जलकर कभी नहीं देखा।
ये मेरे गाँव का पोखर यही भरे , सूखे
बड़े शहरों का समंदर कभी नहीं देखा।
पेट भरने के सिवा ज़िंदगी के क्या माने
किसी ग़रीब ने जीकर कभी नहीं देखा।
नेकियाँ करके भुला दें यही अच्छा होगा
किसी नदी ने पलटकर कभी नहीं देखा।