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फ़स्ल-ए-गुल में जो कोई शाख़-ए-सनोबर तोड़े / रजब अली बेग 'सुरूर'
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फ़स्ल-ए-गुल में जो कोई शाख़-ए-सनोबर तोड़े
बाग़बाँ ग़ैब का उस का वहीं फिर सर तोड़े
दस्त-ए-सय्याद में कहती थी ये कल बुलबुल-ए-ज़ार
क्या रिहाई का मज़ा है जो मिरे पर तोड़े
ख़ाक भी ख़ून की जा निकली न यहाँ ऐ प्यारे
बे-सबब हाए ये फ़ज़ा दून ने नश्तर तोड़े
वस्ल के तिश्ना-लबों को न हो मायूसी क्यूँ
दौर पर उन के फ़लक हाए जो साग़र तोडे़
मेरे दिल-बर को मिला दे जो कोई मुझ से ‘सुरूर’
अभी देता हूँ ज़र-ए-सुर्ख़ के सतर तोड़े