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फिर एक इशारा-सा किस चीज़ का मज़हर है / मेहर गेरा

 
फिर एक इशारा-सा किस चीज़ का मज़हर है
ठहरे हुए पानी में फैंका हुआ पत्थर है

जलती भी रही कलियाँ खिलती भी रही कलियाँ
जलना जो मुक़द्दर है खिलना भी मुक़द्दर है

इन बन्द मकानों में आसान नहीं रहना
ये रूह से तुम पूछो क्या जिस्म का चक्कर है

क्या मेरा तअल्लुक़ हो इस शहर के लोगों से
हर एक के सीने में, जब दिल नहीं पत्थर है

किस तरह बताऊं मैं मस्किन है कहां मेरा
सो जाऊं जहां थककर ऐ मेहर वही घर है।