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फिर भी है तुम को मसीहाई का दावा देखो / हसरत मोहानी

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फिर भी है तुमको मसीहाई का दावा देखो
मुझको देखो मेरे मरने की तमन्ना देखो

जुर्मे-नज़्ज़ारा<ref>एक झलक देखने का अपराध</ref> पे कौन इतनी ख़ुशामद करता
अब भी वो रूठे हैं लो और तमाशा देखो

दो ही दिन में है न वो बात , न वो चाह, न प्यार
हम ने पहले ही ये तुम से न कहा था देखो

हम न कहते थे बनावट से है सारा ग़ुस्सा
हँस के लो फिर वो उन्होंने हमें देखा देखो

मस्ती-ए-हुस्न से अपनी भी नहीं तुम को ख़बर
क्या सुनो अर्ज़ मेरी हाल मेरा क्या देखो

घर से हर वक़्त निकल आते हो खोले हुए बाल
शाम देखो न मेरी जान सवेरा देखो

ख़ाना-ए-जाँ<ref>जीवन के घर </ref> में नुमुदार<ref>प्रकट</ref> है इक पैकर-ए-नूर<ref>प्रकाश का अस्तित्व</ref>
हसरतो आओ, रुख़े-यार<ref>यार के चेहरे</ref> का जल्वा देखो

सामने सबके मुनासिब नहीं हम पर ये इताब<ref>क्रोध </ref>
सर से ढल जाए न ग़ुस्से में दुपट्टा देखो

मर मिटे हम तो कभी याद भी तुमने न किया
अब महब्बत का न करना कभी दावा देखो

दोस्तो तर्के-महब्बत <ref>प्रेम करना छोड़ना </ref>की नसीहत है फ़ज़ूल
और न मानो तो दिले-यार को समझा देखो

सर कहीं बाल कहीं हाथ कहीं पाँव कहीं
उसका सोना भी है किस शान का सोना देखो

अब तो शोख़ी से वो कहते हैं सितमगर हैं जो हम
दिल किसी और से कुछ रोज़ ही बहला देखो

हवस-ए-दीद<ref>दर्शनों की अभिलाषा</ref> मिटी है न मिटेगी ‘हसरत’
देखने के लिए चाहो उन्हें जितना देखो

शब्दार्थ
<references/>