भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिसलपट्टी / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिसलपट्टी से फिसलते हैं बच्चे
सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर तक पहुँचते हैं
ऊँचाई उन्हें आकर्षित करती है
फिसलना उन्हें रोमांच से भर देता है
वे बस पहली बार फिसलने से डरते हैं

एक दिन यह सीढ़ियाँ
ईमानदारी की सीढ़ियाँ बन जाती हैं
सीढ़ियों पर रखा एक-एक कदम
नैतिकता की बुलन्दी पर ले जाता है
बेईमानी की फिसलपट्टी उन्हें बुलाती है
सुख-सुविधाओं के मााजाल में फँसाती है
उन्हें याद आता है
बचपन की फिसलपट्टी का रोमांच
जहाँ उन्हें सम्भालने के लिए
कुछ हाथ होते थे
नर्म रेत होती थी
चोटों से बचाने के लिए

बड़ी उम्र की इस फिसलपट्टी में
थामने वाला कोई नहीं होता
सिर्फ फिसलने का मज़ा होता है
बिना मेहनत के मिला झूठा सुख होता है
वे जानते हैं
फिर भी फिसलते हैं
फिसलकर औंधे मुँह गिरते हैं

फिसलपट्टी एक खेल है
जो केवल बच्चों के लिए होता है
वे फिसलने से बच जाते हैं
जो बड़े होकर यह बात समझ जाते हैं।

-1997