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बंद कमरों में कै़द रहता हूँ / डी. एम. मिश्र

बंद कमरों में कै़द रहता हूँ
चाँद तारों से बात करता हूँ

घर में भीगा रुमाल रख आया
आप से मुस्करा के मिलता हूँ

सिर्फ़ कमरे की दिवारें ही नहीं
दिल भी भीतर से साफ़ रखता हूँ

एक मेरी भी यही कमजोरी
बेालता कम हूँ अधिक सुनता हूँ

आपका वक़्त क़ीमती है बहुत
इसका भी मैं ख़याल रखता हूँ

आप कितना मुझे उठायेंगे
अपनी औक़ात मैं समझता हूँ

जब से आँखों की रोशनी है गयी
तेरी तस्वीर लिए फिरता हूँ