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बजो, रे बंशी, बजो / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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बाजो रे बाँशरि, बाजो ।
बजो, रे बंशी, बजो ।
सुंदरी, चंदनमाला में, अरे मंगल संध्या में सजो ।
लगे यह मधु-फागुन के मास, पांथ वह आता है चंचल—
अरे वह मधुकर कंपित फूल नहीं आया आँगन में खिल ।
लिए रक्तिम अंशुक माथे, हाथ में कंकण किंशुक के,
मंजरी से झंकृत पदचाप, गंध यह मंथर बिखराती,
गीत वंदन के तुम गाकर, कुंज में गुंजन बनकर सजो ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'विचित्र' के अन्तर्गत 41 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)