बज्र-सा घातक कभी कोमल रही है लेखनी / बाबा बैद्यनाथ झा
बज्र-सा घातक कभी कोमल रही है लेखनी
श्रेष्ठ भावों को लिए निश्छल रही है लेखनी
प्रेम की गंगा सदृश निर्मल रही है लेखनी
संकटों का भी सदा से हल रही है लेखनी
जो अभी भी लिख रहे हैं भाव में कटुता लिए
द्वेष ईर्ष्या या घृणा से जल रही है लेखनी
तोप या बन्दूक से भी शक्ति है इसमें अधिक
दुष्ट लोगों के लिए हलचल रही है लेखनी
चंद कवि ही लिख रहे हैं आज भी निष्पक्ष रह
वाद से जकड़ी हुई कुछ पल रही है लेखनी
विश्व की कटुता मिटाने कौन लिखता है कहो
मन मुताबिक ही बदलकर ढल रही है लेखनी
ले कसौटी छंद की जो लिख रहे वे श्रेष्ठ हैं
अन्यथा जो लिख रहे निर्बल रही है लेखनी
लाख हो आलोचना पर हम झुकेंगे ही नहीं
हम अदीबों का सदा सम्बल रही है लेखनी
जो सदा रहता समर्पित वह कभी रुकता नहीं
वृद्ध हूँ बीमार भी पर चल रही है लेखनी
लिख रहे हैं आज ’बाबा’ बाँटने जो देश को
देखिए उनकी सदा निष्फल रही है लेखनी।