भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बनती-बिगड़ती इस दुनिया में / सविता सिंह
Kavita Kosh से
कहीं से नहीं आती हवा
नहीं आते सन्देश मौसम के
चिड़ियों के दिलों में जैसे सन्देह भर गए हैं
निढाल हो चुकी है पृथ्वी के घूमने की उत्तेजना
एक चुप भी नहीं है
जो बैठी हो गम्भीर कोई अर्थ छिपाए
बस बेचैनी है नितान्त अकेलेपन की
एक असह्य निनाद भीतर
बनती-बिगड़ती हुई इस दुनिया में